रविवार, 11 जुलाई 2010

राजस्थान के जनजातीय लोक नृत्य

एम.फिल. हेतु शोध प्रस्ताव

प्रस्तुतकर्ता -

अनिल कुमार

कला एवं सौन्दर्यशास्त्र विभाग

जवाहरलाल नेहरु विश्वविधालय

नई दिल्ली- 10027

विषय क्षेत्र एवं उद्देश्य-

प्रस्तुत शोध विषय राजस्थान की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में जनजातीय लोक नृत्य का विधिवत अध्ययम मनन करने पर उनका नृत्य स्वरूप हमारे सामने कुछ गूढ समस्याएं होने के कारण यह विषय क्षेत्र अपने शोधार्थी को इस क्षेत्र में कार्य करने को प्रेरित करता है। राजस्थान के सांस्कृतिक लोक नृत्य अधिकांशत: जनजातीय वर्ग के द्वारा ही प्रतिनिधित्व किया जाता है। भिन्न-भिन्न जनजातीयों में भिन्न-भिन्न लोकनृत्य अपने आनंद के क्षणों में प्रसन्नता से झूम कर अंग भंगिमाओं का अनायास आयोजित प्रदर्शन किया जाता है। अलग-अलग जनजातीयों के लोक नृत्य एक-दूसरे से भिन्नता एवं विशिष्टता लिए हुए हैं।

उद्देश्य –

1- राजस्थान के जनजातीय लोक नृत्यों का सांगोपांग अध्ययन करना।

2- जनजातीय लोकनृत्यों में भिन्नता के स्वरूप का पता लगाना।

3- सेद्धान्तिक पद्धति तथा वैज्ञानिक पद्धति से लोकनृत्य प्रस्तुत करना।

4- वैज्ञानिक पद्धतियों से प्रस्तुत करते हुए ह्रदयगंम करना।

5- समग्र राजस्थान के लोक नृत्यों को एक स्थल पर प्रस्तुत करना।

राजस्थान जनजातीय के लोक नृत्य

अनादि काल से मनुष्य अपने आनंद के क्षणों में प्रसन्नता से झूम कर अंग की भंगिकाओं का अनायास,अनियोजित प्रदर्शन करता आया है, इसी को नृत्य कहते हैं।

यदि नृत्य को निश्चित नियमों व व्याकरण के माध्यम से किया जाए तो यह शास्त्रीय नृत्य कहलाता है।लोक नृत्य किसी नियम से बंधे नहीं होते हैं। यह उमंग में भरकर सामान्यतया सामूहिक रूप से किया जाते हैं। इनमें न तो मुद्राएं निर्धारित होती हैं और न ही अंगों की निश्चित परिचालना रहती है। लोक नृत्य को सामाजिक बंधन और देश की भौगोलिक स्थिती प्रभावित करती है।

भील जनजातीय नृत्य

क्षेत्र- राजस्थान का मरूस्थलीय जालौर क्षेत्र।

समय- शादी के समय-माली, ढोली, सरगड़ा व भील जाति के केवल पुरूषों के द्वारा।

तरीका- एक साथ चार या पांच ढोल बजाए जाते हैं। ढोल का मुखिया थाकना शैली में बजाना शुरू करत है। ज्योहीं थाकना समाप्त होता है। नृत्यकारों के समूह में कोई मुंह में तलवार लेकर, कोई हाथों में डण्डे लेकर व कोई भुजाओं में रूमाल लटका कर लयबद्ध अंग संचालन करते हैं। इसमें पेशेवर लोकनृतक भी कहते हैं।

भीलों में विभिन्न प्रकार के नृत्य प्रचलित हैं, जो अधिकांशत: वृत्ताकार पथ पर किए जाते हैं। स्त्री पुरूष के सामूहिक नृत्य में आधा वृत स्त्रियों का व आधा पुरूषों का होता है। कुछ नृत्यों में एक-दूसरे के कंधे पर हाथ रखकर पद संचालन किया जाता है। इसके बीच में एक पुरूष छाता लेकर चलता है। यह गीत व नृत्य प्रारंभ करता है। पुरूष नृत्य के बीच-बीच में किलकारियां मारते हैं।

राई व गवरी नृत्य - यह एक नृत्य नाटक है। इसके प्रमुख पात्र भगवान् शिव होते हैं। उनकी अर्धांगिनी गौरी (पार्वती) के नाम को कारण ही इसका नाम गवरी पड़ा। शिव को पुरिया कहते हैं। इनके त्रिशूल के इर्द-गिर्द समस्त नृत्य-पात्र जमा हो जाते हैं जो मांदल व थाली की ताल पर नृत्य करते हैं। इसे राई नृत्य के नाम से जाना जाता हैं।

समय- सावन-भादों में समस्त भील प्रदेशों में।

गवरी की घाई- गवरी लोक-नाटिका में विभिन्न प्रसंगों को एक प्रमुख प्रसंग से जोड़ने वाले सामूहिक नृत्य को गवरी की घाई कहते हैं।

युद्ध नृत्य- भीलों द्वारा सुदूर पहाड़ी क्षेत्रों में हथियार के साथ किया जाने वाला तालबद्ध नृत्य।

द्विचकी नृत्य- विवाह के अवसर पर भील पुरूषों व महिलाओं के द्वारा दो वृत बनाकर किया जाने वाला नृत्य।

लोकनृत्य घूमरा- बांसवाड़ा, डूंगरपुर तथा उदयपुर जिले की भील महिलाओं द्वारा ढोल व थाली वाद्य के साथ अर्द्धवृत बनाकर घूम -घूम कर किया जाने वाला नृत्य।

गरासियों के नृत्य

होली व गणगौर इनके प्रमुख त्योहार हैं। इनके अलावा शादी-ब्याह पर भी स्त्री-पुरूष टोलियां बनाकर आनंद-मग्न होकर नृत्य करते हैं।

वालर नृत्य- स्त्री-पुरूषों द्वारा जाने वाला प्रसिद्ध नृत्य।

तरीका- बिना वाद्य के धीमी गति पर। यह नृत्य अर्द्ध वृत में किया जाता है। दो अर्द्ध वृत होते हैं। बाहरी अर्द्ध वृत में पुरूष व अंदर वाले में महिलाएं रहती हैं। नर्तक व नर्तकी अपने आगे वाले नर्तक व नर्तकी के कंधे पर अपना दायां हाथ रखते हैं।

इस नृत्य का प्रारंभ एक पुरूष हाथ में छाता या तलवार लेकर करता है।

पुरूष-स्त्रियां गीत के साथ नृत्य प्रारंभ करते हैं। पुरूषों के गीत की पंक्ति की समाप्ति से एक मात्रा पहले स्त्रियां गीत उठा लेती हैं।

लूर नृत्य- लूर गौत्र की गरासिया महिलाओं के द्वारा मुख्यत: मेले व शादी के अवसर पर किया जाने वाला नृत्य।

कूद नृत्य- गरासिया स्त्रियों व पुरूषों के द्वारा सम्मिलित रूप से बिना वाद्य के पंक्तिबद्ध होकर किया जाने वाला नृत्य।

मांदल नृत्य- गरासिया महिलाओं के द्वारा किया जाने वाला वृताकार नृत्य।

गौर नृत्य- गणगौर के अवसर पर गरासिया स्त्री-पुरूषों के द्वारा किया जाने वाला आनुष्ठिनिक नृत्य।

जवारा नृत्य- होली दहन से पूर्व स्त्री-पुरूषों द्वारा किया जाने वाला सामूहिक नृत्य।

मोरिया नृत्य- विवाह के अवसर पर गणपति-स्थापना के पश्चात रात्रि को पुरूषों द्वारा किया जाने वाला नृत्य।

घूमन्तों के नृत्य

नृत्यों में अंगों की अधिक तोड़-मरोड़, कामुक, वाद्य-ढोलक-मजीरा,खुलकर नाचते हैं। कंजरों की स्त्रियां नाचने में बड़ी प्रवीण होती है। इनका अंग-संचालन देखते ही बनता है। कंजर जाति के मुख्य नृत्य निम्न हैं-

चकरी नृत्य- ढप (ढोलक), मंजीरा तथा नगाड़े की लय पर कंजर युवतियों द्वारा किया जाने वाला चक्राकार नृत्य। यह नृत्य हाड़ौती अंचल का प्रसिद्ध नृत्य है।

धाकड़ नृत्य- हथियार लेकर किये जाने वाले शौर्य से परिपूर्ण इस नृत्य में युद्ध की सभी कलाएं प्रदर्शित की जातती हैं।

कालबेलियों के नृत्य

ये लोग किसी भी प्रचलित लोकगीत पर नृत्य कर सकते हैं। अधिकतर स्त्रियां नृत्य करती हैं। कभी-कभी स्त्री-पुरूष सम्मिलित भी। वाद्य-पूंगी, खंजरी, धुरालियां, मोरचंग आदि।

वेशभूषा-स्त्रियां कलात्मक लहंगा , ओढनी व अंगरखी पहनती हैं।

इन्डोणी नृत्य- गोलाकार पथ पर पूंगी, खंजरी वाद्य पर स्त्री-पुरूष द्वारा किया जाता है।

शंकरिया नृत्य- परिणय कथा पर आधारित स्त्री-पुरूष का नृत्य। अंगों का संचालन मोहक व सुंदर होता है।

पणिहारी नृत्य- पणिहारी गीत पर आधारित एक युगल नृत्य है। इस नृत्य की मुख्य वाद्य ढोलक एवं बांसुरी है।

गुलाबो कालबेलिया- नृत्य की अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त नृत्यागंना है।

गाडियो लुहारों का नृत्य

इन नृत्यों में सामूहिक संरचना न होकर गीत को साथ स्वछंद रूप से नृत्य किया जाता है।

बणजारों का नृत्य

इस लोक नृत्य में सामूहिक संरचना न होकर गीत के साथ स्वछंद रूप से किया जाता है।

मछली नृत्य तथा नेजा नृत्य इनके प्रमुख नृत्य हैं। मछली नृत्य पूर्णिमा की चांदनी रात में बंजारों के खेमों में किया जाने वाला एक नृत्य नाटक है।

शोध-प्रविधि-

यह शोध कार्य विश्लेषणात्मक एवं तुलनात्मक पद्धति पर आधारित होगा। सर्वप्रथम जनजातीय ग्रंथों का विधिवत् अध्ययन, मनन एवं जनजातीय वर्गों के वयोवृद्ध पुरूषों से साक्षात्कार होगा।

इनकी विषयवस्तु के आधार पर अध्याय विभाजन होगा। पुन: अध्याय विभाजन के आधार पर जनजातीय लोकनृत्यों में समानता तथा विषमता का विश्लेषण कर तार्किक दृष्टि से प्रस्तुत किया जाएगा।

प्रस्तावित अध्याय योजना-

· भील जनजाती के लोकनृत्यों की परम्परा

· मीणा जनजाती में लोकनृत्यों की परम्परा

· गरासीया जनजाती में लोकनृत्यों की परम्परा

· सांसी जनजाती में लोकनृत्यों की परम्परा

· सहरिया जनजाती में लोकनृत्यों की परम्परा

· डामोर जनजाती में लेकनृत्यों की परम्परा

· कंजर जनजाती में लोकनृत्यों की परम्परा

· कथोड़ी जनजाती में लोकनृत्यों की परम्परा

· जनजातीय समुदाय परम्परा में लोकनृत्यों का तुलनात्मक, समग्र अध्ययन एवं विश्लेषण।

· उपसंहार

शोध समस्या-

प्रस्तुत शोध विषय पर शोध कार्य नहीं हुआ है। यतकिञ्चित लिखित दस्तावेज ही सामान्यतया लोक प्रचलन में सुनने को मिलते हैं तथा कुछ सामग्री राजस्थान के समाचार पत्रों से प्राप्त होती है। जनजातीय वर्ग में परम्परा से शिक्षा का अभाव होने के कारण लिखित दस्तावेज उपलब्ध नहीं है। अत: पृथक-पृथक लिखित सामग्री तथा वयोवृद्ध पुरूषों से साक्षात्कार कर एक विश्लेषित समग्र अध्ययन प्रस्तुत करना।

संदर्भ ग्रंथ सूची-

गौण स्त्रोत-

1- राजस्थान की सांस्कृतिक परम्परा, डॉ. जयसिंह नीरज, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर

2- धरोहर, कनक सिंह राव, शिव बुक डिपो, 167, चौड़ा रास्ता, जयपुर।

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