बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

बुध धर्म की प्रतिज्ञा

बुध धर्म की प्रतिज्ञा

मैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश में कोई विश्वास...

मैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश में कोई विश्वास नहीं करूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा
मैं राम और कृष्ण, जो भगवान के अवतार माने जाते हैं, में कोई आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा
मैं गौरी, गणपति और हिन्दुओं के अन्य देवी-देवताओं में आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा.
मैं भगवान के अवतार में विश्वास नहीं करता हूँ
मैं यह नहीं मानता और न कभी मानूंगा कि भगवान बुद्ध विष्णु के अवतार थे. मैं इसे पागलपन और झूठा प्रचार-प्रसार मानता हूँ
मैं श्रद्धा (श्राद्ध) में भाग नहीं लूँगा और न ही पिंड-दान दूँगा.
मैं बुद्ध के सिद्धांतों और उपदेशों का उल्लंघन करने वाले तरीके से कार्य नहीं करूँगा
मैं ब्राह्मणों द्वारा निष्पादित होने वाले किसी भी समारोह को स्वीकार नहीं करूँगा
मैं मनुष्य की समानता में विश्वास करता हूँ
मैं समानता स्थापित करने का प्रयास करूँगा
मैं बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग का अनुशरण करूँगा
मैं बुद्ध द्वारा निर्धारित परमितों का पालन करूँगा.
मैं सभी जीवित प्राणियों के प्रति दया और प्यार भरी दयालुता रखूँगा तथा उनकी रक्षा करूँगा.
मैं चोरी नहीं करूँगा.
मैं झूठ नहीं बोलूँगा
मैं कामुक पापों को नहीं करूँगा.
मैं शराब, ड्रग्स जैसे मादक पदार्थों का सेवन नहीं करूँगा.
मैं महान आष्टांगिक मार्ग के पालन का प्रयास करूँगा एवं सहानुभूति और प्यार भरी दयालुता का दैनिक जीवन में अभ्यास करूँगा.
मैं हिंदू धर्म का त्याग करता हूँ जो मानवता के लिए हानिकारक है और उन्नति और मानवता के विकास में बाधक है क्योंकि यह असमानता पर आधारित है, और स्व-धर्मं के रूप में बौद्ध धर्म को अपनाता हूँ
मैं दृढ़ता के साथ यह विश्वास करता हूँ की बुद्ध का धम्म ही सच्चा धर्म है.
मुझे विश्वास है कि मैं फिर से जन्म ले रहा हूँ (इस धर्म परिवर्तन के द्वारा).
मैं गंभीरता एवं दृढ़ता के साथ घोषित करता हूँ कि मैं इसके (धर्म परिवर्तन के) बाद अपने जीवन का बुद्ध के सिद्धांतों व शिक्षाओं एवं उनके धम्म के अनुसार मार्गदर्शन करूँगा.

रविवार, 11 जुलाई 2010

राजस्थान के जनजातीय लोक नृत्य

एम.फिल. हेतु शोध प्रस्ताव

प्रस्तुतकर्ता -

अनिल कुमार

कला एवं सौन्दर्यशास्त्र विभाग

जवाहरलाल नेहरु विश्वविधालय

नई दिल्ली- 10027

विषय क्षेत्र एवं उद्देश्य-

प्रस्तुत शोध विषय राजस्थान की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में जनजातीय लोक नृत्य का विधिवत अध्ययम मनन करने पर उनका नृत्य स्वरूप हमारे सामने कुछ गूढ समस्याएं होने के कारण यह विषय क्षेत्र अपने शोधार्थी को इस क्षेत्र में कार्य करने को प्रेरित करता है। राजस्थान के सांस्कृतिक लोक नृत्य अधिकांशत: जनजातीय वर्ग के द्वारा ही प्रतिनिधित्व किया जाता है। भिन्न-भिन्न जनजातीयों में भिन्न-भिन्न लोकनृत्य अपने आनंद के क्षणों में प्रसन्नता से झूम कर अंग भंगिमाओं का अनायास आयोजित प्रदर्शन किया जाता है। अलग-अलग जनजातीयों के लोक नृत्य एक-दूसरे से भिन्नता एवं विशिष्टता लिए हुए हैं।

उद्देश्य –

1- राजस्थान के जनजातीय लोक नृत्यों का सांगोपांग अध्ययन करना।

2- जनजातीय लोकनृत्यों में भिन्नता के स्वरूप का पता लगाना।

3- सेद्धान्तिक पद्धति तथा वैज्ञानिक पद्धति से लोकनृत्य प्रस्तुत करना।

4- वैज्ञानिक पद्धतियों से प्रस्तुत करते हुए ह्रदयगंम करना।

5- समग्र राजस्थान के लोक नृत्यों को एक स्थल पर प्रस्तुत करना।

राजस्थान जनजातीय के लोक नृत्य

अनादि काल से मनुष्य अपने आनंद के क्षणों में प्रसन्नता से झूम कर अंग की भंगिकाओं का अनायास,अनियोजित प्रदर्शन करता आया है, इसी को नृत्य कहते हैं।

यदि नृत्य को निश्चित नियमों व व्याकरण के माध्यम से किया जाए तो यह शास्त्रीय नृत्य कहलाता है।लोक नृत्य किसी नियम से बंधे नहीं होते हैं। यह उमंग में भरकर सामान्यतया सामूहिक रूप से किया जाते हैं। इनमें न तो मुद्राएं निर्धारित होती हैं और न ही अंगों की निश्चित परिचालना रहती है। लोक नृत्य को सामाजिक बंधन और देश की भौगोलिक स्थिती प्रभावित करती है।

भील जनजातीय नृत्य

क्षेत्र- राजस्थान का मरूस्थलीय जालौर क्षेत्र।

समय- शादी के समय-माली, ढोली, सरगड़ा व भील जाति के केवल पुरूषों के द्वारा।

तरीका- एक साथ चार या पांच ढोल बजाए जाते हैं। ढोल का मुखिया थाकना शैली में बजाना शुरू करत है। ज्योहीं थाकना समाप्त होता है। नृत्यकारों के समूह में कोई मुंह में तलवार लेकर, कोई हाथों में डण्डे लेकर व कोई भुजाओं में रूमाल लटका कर लयबद्ध अंग संचालन करते हैं। इसमें पेशेवर लोकनृतक भी कहते हैं।

भीलों में विभिन्न प्रकार के नृत्य प्रचलित हैं, जो अधिकांशत: वृत्ताकार पथ पर किए जाते हैं। स्त्री पुरूष के सामूहिक नृत्य में आधा वृत स्त्रियों का व आधा पुरूषों का होता है। कुछ नृत्यों में एक-दूसरे के कंधे पर हाथ रखकर पद संचालन किया जाता है। इसके बीच में एक पुरूष छाता लेकर चलता है। यह गीत व नृत्य प्रारंभ करता है। पुरूष नृत्य के बीच-बीच में किलकारियां मारते हैं।

राई व गवरी नृत्य - यह एक नृत्य नाटक है। इसके प्रमुख पात्र भगवान् शिव होते हैं। उनकी अर्धांगिनी गौरी (पार्वती) के नाम को कारण ही इसका नाम गवरी पड़ा। शिव को पुरिया कहते हैं। इनके त्रिशूल के इर्द-गिर्द समस्त नृत्य-पात्र जमा हो जाते हैं जो मांदल व थाली की ताल पर नृत्य करते हैं। इसे राई नृत्य के नाम से जाना जाता हैं।

समय- सावन-भादों में समस्त भील प्रदेशों में।

गवरी की घाई- गवरी लोक-नाटिका में विभिन्न प्रसंगों को एक प्रमुख प्रसंग से जोड़ने वाले सामूहिक नृत्य को गवरी की घाई कहते हैं।

युद्ध नृत्य- भीलों द्वारा सुदूर पहाड़ी क्षेत्रों में हथियार के साथ किया जाने वाला तालबद्ध नृत्य।

द्विचकी नृत्य- विवाह के अवसर पर भील पुरूषों व महिलाओं के द्वारा दो वृत बनाकर किया जाने वाला नृत्य।

लोकनृत्य घूमरा- बांसवाड़ा, डूंगरपुर तथा उदयपुर जिले की भील महिलाओं द्वारा ढोल व थाली वाद्य के साथ अर्द्धवृत बनाकर घूम -घूम कर किया जाने वाला नृत्य।

गरासियों के नृत्य

होली व गणगौर इनके प्रमुख त्योहार हैं। इनके अलावा शादी-ब्याह पर भी स्त्री-पुरूष टोलियां बनाकर आनंद-मग्न होकर नृत्य करते हैं।

वालर नृत्य- स्त्री-पुरूषों द्वारा जाने वाला प्रसिद्ध नृत्य।

तरीका- बिना वाद्य के धीमी गति पर। यह नृत्य अर्द्ध वृत में किया जाता है। दो अर्द्ध वृत होते हैं। बाहरी अर्द्ध वृत में पुरूष व अंदर वाले में महिलाएं रहती हैं। नर्तक व नर्तकी अपने आगे वाले नर्तक व नर्तकी के कंधे पर अपना दायां हाथ रखते हैं।

इस नृत्य का प्रारंभ एक पुरूष हाथ में छाता या तलवार लेकर करता है।

पुरूष-स्त्रियां गीत के साथ नृत्य प्रारंभ करते हैं। पुरूषों के गीत की पंक्ति की समाप्ति से एक मात्रा पहले स्त्रियां गीत उठा लेती हैं।

लूर नृत्य- लूर गौत्र की गरासिया महिलाओं के द्वारा मुख्यत: मेले व शादी के अवसर पर किया जाने वाला नृत्य।

कूद नृत्य- गरासिया स्त्रियों व पुरूषों के द्वारा सम्मिलित रूप से बिना वाद्य के पंक्तिबद्ध होकर किया जाने वाला नृत्य।

मांदल नृत्य- गरासिया महिलाओं के द्वारा किया जाने वाला वृताकार नृत्य।

गौर नृत्य- गणगौर के अवसर पर गरासिया स्त्री-पुरूषों के द्वारा किया जाने वाला आनुष्ठिनिक नृत्य।

जवारा नृत्य- होली दहन से पूर्व स्त्री-पुरूषों द्वारा किया जाने वाला सामूहिक नृत्य।

मोरिया नृत्य- विवाह के अवसर पर गणपति-स्थापना के पश्चात रात्रि को पुरूषों द्वारा किया जाने वाला नृत्य।

घूमन्तों के नृत्य

नृत्यों में अंगों की अधिक तोड़-मरोड़, कामुक, वाद्य-ढोलक-मजीरा,खुलकर नाचते हैं। कंजरों की स्त्रियां नाचने में बड़ी प्रवीण होती है। इनका अंग-संचालन देखते ही बनता है। कंजर जाति के मुख्य नृत्य निम्न हैं-

चकरी नृत्य- ढप (ढोलक), मंजीरा तथा नगाड़े की लय पर कंजर युवतियों द्वारा किया जाने वाला चक्राकार नृत्य। यह नृत्य हाड़ौती अंचल का प्रसिद्ध नृत्य है।

धाकड़ नृत्य- हथियार लेकर किये जाने वाले शौर्य से परिपूर्ण इस नृत्य में युद्ध की सभी कलाएं प्रदर्शित की जातती हैं।

कालबेलियों के नृत्य

ये लोग किसी भी प्रचलित लोकगीत पर नृत्य कर सकते हैं। अधिकतर स्त्रियां नृत्य करती हैं। कभी-कभी स्त्री-पुरूष सम्मिलित भी। वाद्य-पूंगी, खंजरी, धुरालियां, मोरचंग आदि।

वेशभूषा-स्त्रियां कलात्मक लहंगा , ओढनी व अंगरखी पहनती हैं।

इन्डोणी नृत्य- गोलाकार पथ पर पूंगी, खंजरी वाद्य पर स्त्री-पुरूष द्वारा किया जाता है।

शंकरिया नृत्य- परिणय कथा पर आधारित स्त्री-पुरूष का नृत्य। अंगों का संचालन मोहक व सुंदर होता है।

पणिहारी नृत्य- पणिहारी गीत पर आधारित एक युगल नृत्य है। इस नृत्य की मुख्य वाद्य ढोलक एवं बांसुरी है।

गुलाबो कालबेलिया- नृत्य की अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त नृत्यागंना है।

गाडियो लुहारों का नृत्य

इन नृत्यों में सामूहिक संरचना न होकर गीत को साथ स्वछंद रूप से नृत्य किया जाता है।

बणजारों का नृत्य

इस लोक नृत्य में सामूहिक संरचना न होकर गीत के साथ स्वछंद रूप से किया जाता है।

मछली नृत्य तथा नेजा नृत्य इनके प्रमुख नृत्य हैं। मछली नृत्य पूर्णिमा की चांदनी रात में बंजारों के खेमों में किया जाने वाला एक नृत्य नाटक है।

शोध-प्रविधि-

यह शोध कार्य विश्लेषणात्मक एवं तुलनात्मक पद्धति पर आधारित होगा। सर्वप्रथम जनजातीय ग्रंथों का विधिवत् अध्ययन, मनन एवं जनजातीय वर्गों के वयोवृद्ध पुरूषों से साक्षात्कार होगा।

इनकी विषयवस्तु के आधार पर अध्याय विभाजन होगा। पुन: अध्याय विभाजन के आधार पर जनजातीय लोकनृत्यों में समानता तथा विषमता का विश्लेषण कर तार्किक दृष्टि से प्रस्तुत किया जाएगा।

प्रस्तावित अध्याय योजना-

· भील जनजाती के लोकनृत्यों की परम्परा

· मीणा जनजाती में लोकनृत्यों की परम्परा

· गरासीया जनजाती में लोकनृत्यों की परम्परा

· सांसी जनजाती में लोकनृत्यों की परम्परा

· सहरिया जनजाती में लोकनृत्यों की परम्परा

· डामोर जनजाती में लेकनृत्यों की परम्परा

· कंजर जनजाती में लोकनृत्यों की परम्परा

· कथोड़ी जनजाती में लोकनृत्यों की परम्परा

· जनजातीय समुदाय परम्परा में लोकनृत्यों का तुलनात्मक, समग्र अध्ययन एवं विश्लेषण।

· उपसंहार

शोध समस्या-

प्रस्तुत शोध विषय पर शोध कार्य नहीं हुआ है। यतकिञ्चित लिखित दस्तावेज ही सामान्यतया लोक प्रचलन में सुनने को मिलते हैं तथा कुछ सामग्री राजस्थान के समाचार पत्रों से प्राप्त होती है। जनजातीय वर्ग में परम्परा से शिक्षा का अभाव होने के कारण लिखित दस्तावेज उपलब्ध नहीं है। अत: पृथक-पृथक लिखित सामग्री तथा वयोवृद्ध पुरूषों से साक्षात्कार कर एक विश्लेषित समग्र अध्ययन प्रस्तुत करना।

संदर्भ ग्रंथ सूची-

गौण स्त्रोत-

1- राजस्थान की सांस्कृतिक परम्परा, डॉ. जयसिंह नीरज, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर

2- धरोहर, कनक सिंह राव, शिव बुक डिपो, 167, चौड़ा रास्ता, जयपुर।

शनिवार, 10 जुलाई 2010

भारतीय दर्शन में सूक्ष्म शरीर की स्वरुप

(अव्देत वेदान्त, सांख्य तथा शैव दर्शनों के विशेष सन्दर्भ में)”

प्रस्तुतकर्ता

अनिल कुमार

विशिष्ट संस्कृत अधय्यन केन्द्र

जवाहरलाल नेहरु विश्वविधालय

नई दिल्ली- 10027

भारतीय दर्शन में सूक्ष्म शरीर की स्वरुप :-

भारतीय दर्शन में पुनर्जन्म की अवधारणा को चार्वाक को छोड़कर प्राय: सभी दर्शन स्वीकार

करते हैं। यह पुनर्जन्म किसका का होता है? इसके उत्तर में सभी दर्शन आत्मा का पुनर्जन्म

स्वीकार करते हैं। बौद्ध दर्शन आलयविज्ञान का पुनर्जन्म स्वीकार करता है। श्रीमद्भगवद् गीता में

श्रीकृष्ण भी कहते हैं -- वांसासि जीर्णानि यथा विहाय

नवानि गृह्वाति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-

न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।

अर्थात् जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा

पुराने शरीरों को त्यागकर नवीन शरीरों को प्राप्त करती है।1

स्थूल शरीर में आत्मा का पुनर्जन्म होता

है, फिर सूक्ष्म शरीर मानने की आवश्यकता क्या है? बौद्ध दर्शन सूक्ष्न शरीर को मनोमय

आत्मप्रतिलाभ2, शैव दर्शन पौर्यष्टक3, सांख्य दर्शन लिंग शरीर4 या सूक्ष्म शरीर तथा वेदान्त-दर्शन

लिग्ङ शरीर सूक्ष्म शरीर मानता हैं। सूक्ष्म शरीर की आवश्यकता है क्योंकि आत्मा शुद्ध एवं

चेतन हैं तथा यह साधनहीन रहकर अचेतन जगत् के सम्पर्क में कुछ भी करने में असमर्थ है।

श्रीमदभगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं-

न जायते म्रियते वा कदाचि-

न्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।

अजो नित्य शाश्वतोऽयं पुराणो-

न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

1. भगद्गीता,२.२२

2. आत्मप्रतिलाभ-पौठपाद सुत्त(दीर्घनिकाय,१३)

3. सर्वदर्शनसग्रंह-पॄ.स. २९०

अर्थात् यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न ही मरती है तथा न यह

उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है, क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर

के मारे जाने पर भी यह नहीं मरता है।1

भोगादि के लिए एक स्थूल शरीर को छोड़कर दूसरे स्थूल शरीर में जाने के लिए भी आत्मा को

साधन की अपेक्षा रहती हैं। यह साधन सूक्ष्म शरीर ही है। इस जन्म-मरण की गति में यह

हमेशा आत्मा के साथ बना रहता हैं। जैसे उल्लू पर लक्ष्मीजी विराजित रहते हुए इठधर-उधर

आ जा सकती हैं अर्थात् लक्ष्मीजी का वाहन उल्लू है, वैसे ही आत्मा का वाहन सूक्ष्म शरीर को

कहा जाता है। समस्त सर्गकाल में आत्मा इसी में स्थित होकर अपनी समस्त गतिविधियाँ

सम्पन्न करता है। यह आत्मा और स्थूल शरीर के मध्य सदैव बना रहता है।

इस तरह सूक्ष्म शरीर आत्मा का अधिष्ठान कहा गया है। सूक्ष्म शरीर का वास्तविक उपभोग ,

आत्मा के लिए सुख-दुखादि समस्त भोगों को प्रस्तुत करना तथा समाधि द्वारा तत्त्वज्ञान का

सम्पादन करना है। शुद्ध आत्मा भोगों को करने में असमर्थ रहती है फलस्वरूप आत्मा को

अपने प्रयोजन की पूर्ति के लिए एक ऎसे साधन की अपेक्षा रहती है, जो भोग से लेकर अपवर्ग

या मोक्ष पर्यन्त सर्वदा उसका सहयोग कर सके, सूक्ष्म शरीर ही वह साधन है|

सूक्ष्म शरीर आत्मा तथा स्थूल शरीर के मध्य की योजक- कड़ी है। सूक्ष्म शरीर का स्वरूप

भारतीय दर्शन- अद्वेत वेदान्त, सांख्य तथा शैव दर्शनो में निम्नलिखित हैं-

अद्वेत वेदान्त दर्शन में सूक्ष्म शरीर का स्वरुप-

अदैव्त वेदान्त दर्शन का मानना है कि ईश्वर सृष्टि की रचना केवल लीला के लिए करता है।1 शंकराचार्य का कहना है कि सृष्टि रचना ईश्वर का स्वभाव है। जैसे मनुष्य के शरीर में श्वास-प्रश्वास चलते रहते हैं उसी प्रकार सृष्टि की उत्पति और विनाश होता रहता है।2 वेदान्त सार प्रकरण ग्रंथ में सदानन्द ने सृष्टि की प्रक्रिया के अन्तर्गत सूक्ष्म शरीर एवं स्थूल शरीर का वर्णन किया है।

1-लोकवन्तु लीलाकैवलम्। ब्रह्मसूत्र-2.1,33

2-यथा चोच्छइवासप्रश्वासादयोनाभिसंधाय बाह्य किञ्चित प्रयोजनान्तरं स्वभावादेव भवन्ति, एवमीश्वरस्याप्यपेक्ष्य किञ्चित प्रयोजनान्तरं स्वभावदेव केवलं लीलारूपा प्रवृतिभविष्यति। शा.भा.2.1,33

उनके अनुसार , तमोगुणप्रधान किन्तु रज और सत्ता की यत्किञ्चित् सता से युक्त विक्षेप शक्ति सम्पन्न अज्ञानोपहित चैतन्य अर्थात् ब्रह्म ही सृष्टि का कारण हैं। उससे सर्वप्रथम आकाश की उत्पति होती है- क्रमश: आकाश से स्थूलतर वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल तथा जल से पृथ्वी की उत्पति होती है।1

सृष्टि में जड़ता का प्राधान्य होने के कारण ईश्वर को भी तमोगुण से युक्त विक्षेपशक्ति से उपहित माना जाता है। ये पांचों तत्व अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं और व्यक्त नहीं होते, अत: इन्हें सूक्ष्मभूत या तन्मात्रा कहा जाता है। इन तन्मात्राओं के सात्त्विक अंश से पृथक-पृथक पांच इन्द्रियों की उत्पति होती है।2 आकाश तन्मात्रा से श्रोत्र, वायु तन्मात्रा से स्पर्श, अग्नि तन्मात्रा से चक्षु, जल तन्मात्रा से जिह्वा तथा पृथ्वी तन्मात्रा से घ्राण इन्द्रिय की उत्पति होती है। इन पांचों का निवास स्थान क्रमश: कर्ण, त्वचा, नेत्र, जिह्वा तथा नासिका में है और ये क्रमश: शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गंध का अनुभव कराती हैं।3

आकाश तम्मात्राओं के सात्त्विक अंश की समष्टि से बुद्धि और मन नाम की दो वृतियों की उत्पति होती है। बुद्धि निश्चयात्मिका वृति4 तथा मनस् संकल्प विकल्पात्मिका वृति है।5 चित का बुद्धि में और अहंकार का मन में अन्तर्भाव है।6 ये सभी प्रकाशस्वरूप है अर्थात् बाह्य संसार का ज्ञान कराती है, अत: इनको सत्त्वगुण से उत्पन्न माना गया है।7 आकाशादि के राजसिक अंश से इसी प्रकार से कर्मेन्द्रियों और प्राणों की उत्पति होती है।8 कर्मेंन्द्रियों की उत्पत्ति आकाशादि तन्मात्राओं से पृथक-पृथक होती है।9 रजोगुणप्रधान आकाश से वाक्, रजोगुणप्रधान वायु से पाणि (हाथ) , रजोगुणप्रधान अग्नि से पाद, रजोगुणप्रधान जल से मलविसर्जन करने वाली कर्मेन्द्रिय पायु और रजोगुणप्रधान पृथ्वी से मूत्रेन्द्रिय उपस्थ की उत्पति होती है। प्राणों की उत्पति पांच तन्मात्राओं से होती है। प्राणवायु पांच है- प्राण, अपान, व्याग्र, उदान और समान।10 प्राण नासिका के अग्रभाग में रहता है। इसकी गति उपर की ओर होती है।

1. तम:प्रधान विक्षेपशक्ति मदज्ञानोपहितमचैतन्याकाश आकाशद्वायुर्वायोरग्निरग्नेरोअदरभ्य:पृथिवी चोत्पधते तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाश: सम्भूतं इत्यादिश्रुते:।वेदान्तसार571

2. तेषु जाडयाधिक्यदर्शनात्तम: प्राधान्यं तत्कारणस्य। तदानीं सत्वरजस्तमांसि कारणयुगप्रक्रेण तेष्वाकाशादिषुत्पद्य्न्ते। वेदान्तसार,58

3. ज्ञानेन्द्रियाणि श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिहवाघ्राणाख्यानि।वेदान्तसार,63

4. बुद्धिर्नाम निश्चयात्मिकान्त: करणवति:।वेदान्तसार,65

5. मनोनाम संकल्पविक्लपात्कान्त:करणवृति।वेदान्तसार,66

6. अनयोरेव चित्ताहकांरयोन्तर्भाव:।वेदान्तसार,67

7. एते पुनराकाशादिगतसात्त्विकांशेभेयो मिलितेभ्य उत्पद्य्न्ते।वेदान्तसार,70

8. रजोशै: पञ्चभिस्तेषां क्रमात्कर्मेन्द्रियाणि तु।वाक्पाणिपादपायूपस्थाभिधानानि जज्ञिरे।।पञ्चदशी।

9. -एतानि पुनराकाशादीनां रजोशेभ्यो व्यस्तेभ्य: पृथक-पृथक क्रमेणोपद्य्न्तो। वेदान्तसार,76

10. वायव: प्राणपानव्यानोदानसमाना:।वेदान्तसा,77

11. प्राणो नाम प्राग्गमनवान्नासाग्रस्थानवर्ती।।वेदान्सार,78

अपना वायु गुदा आदि स्थानों में रहता है। इसकी गति नीचे की ओर रहती है, अत: यह मल-मूत्रादि को शरीर से बाहर निकालता है।1 उदान कण्ठ में रहता हुआ जीवात्मा को उपर ले जाता है। समान उदर में रहती3 है और भोजन का परिपाक एवं विभाग करता है।4 वेदान्त दर्शन में पञ्चकर्मेन्द्रियों, पञ्चज्ञानेन्द्रियों,पञ्च प्राणों, मन एवं बुद्धि इन सभी सत्रह तत्वों के योग से शरीर बनता है।

शांकर भाष्य में भी कहा गया है- मुख्य तु सप्तदशकं प्रथितं हि लिंगम्। 5 अर्थात् मुख्यत: 17 तत्वों के मेल से ही लिंग (शरीर) बनता है। ये 17 अवयव है-

पञ्चप्राणमनोबुद्धि दशेन्द्रियसमन्वितम्।

अपञ्चीकृतभूतोत्यं सूक्ष्मागं भोगसाधनम्।।5

सदानन्द ने भी सूक्ष्मशरीर को 17 अवयवों से निर्मित लिंग शरीर ही कहा है-

सूक्ष्मशरीराणि सप्तदशावयवानि लिंगशरीराणि।6

इन 17 अवयवों को तीन कोशों विज्ञानमय कोश, मनोमय कोश तथा प्राणमय कोश में वर्गीकृत किया गया है। पञ्चज्ञानेन्द्रियों के समेत बुद्धि को विज्ञानमय कोश कहते हैं।7 पञ्चज्ञानेन्द्रियों सहित मन को मनोमय कोश कहते हैं।8 पञ्चकर्मेन्द्रियों एवं पञ्च प्राणों को प्राणमय कोश कहते हैं।9 इनमें से विज्ञानमय कोश ज्ञानशक्ति से युक्त है, इसलिए कर्ता कहलाता है। इस कोश से युक्त चैतन्य जीव कहलाता है। मनोमयकोश इच्छाशक्तिसम्पन्न है, अत: विवेक का साधन कहलाता है तथा प्राणमय कोश गमनादि क्रियासम्पन्न है, अत: कार्यस्वरूप है। स्वयोग्यता के आधार पर ही इनका क्रमश: कर्ता, करण तथा कार्य इन नामों से विभाग किया गया है। यो तीनो मिलकर ही सूक्ष्म शरीर कहलाते हैँ।10

1. अपानो नामावाग्गमनवान् पाथ्वादिस्यानवर्ती।।वेदान्तसार,79

2. व्यानो नाम विष्विग्गमनवानखिलशरीरवर्ती।।वेदान्तसार,80

3. उदामो नाम कण्ठस्थानीय उधर्वगमनवानुत्क्रमणवायु:।वेदान्तसार81

4. -समानो नाम शरीरमध्यगतशितपीतान्नादिसमीकरणकर:।वेदान्तसार,82

5. शांकर भाष्य से

6. -वेदान्तसार से,61

7. इयं बुद्धिर्ज्ञानेन्द्रियै: सहिता विज्ञानमयकोशो भवति। वेदान्तसार,72

8. मनस्तु ज्ञानेन्द्रियै: सहितं सन्मनोमयकोशो भवति। वेदान्तसार,73

9. इदं प्राणादिपञ्चकं कर्मेन्द्रियै:सहितं सत्प्राणमयकोशोभवति। वेदान्तसार,88

10. एतेषु कोशोषु मध्ये विज्ञानमयो ज्ञानशक्तिमान कर्तरूप:। मनोमय इच्छाशक्तिमान करणरूप:। प्राणमय: क्रियाशक्तिमान कार्यरूप:। योग्यत्वादेवमेतेषां विभाग इति वर्णयन्ति। एततकोशत्रयं मिलितं। सत्सूक्ष्मशरीरमित्युच्यते। वेदान्तसार,89

वेदान्त दर्शन के अनुसार जीव, ईश्वर एव ब्रह्म ये तीन उपाधि भेद से पृथक-पृथक हैं। किन्तु

तत्त्वत: एक ही हैं। जीव का तीन तरह के शरीरों से संबंध होता है-कारण शरीर, सूक्ष्म शरीर एवं स्थूल शरीर। सृष्टि के प्रारम्भ में जीव कारण शरीर का आश्रय लेकर विघमान रहता है। ब्रह्म जब शुद्ध सत्वप्रधान अज्ञान से आवृत होता है तो इसे ईश्वर, अव्यक्त, अंतर्यामी या जगत का कारण कहते हैं जिसे कारण शरीर कहते हैं। आनंद का प्राचुर्य रहने से इसे आनंदमय कोश भी कहते हैं, प्रलयकाल में यह बना रहता है। सूक्ष्म एवं स्थूल शरीर का यह लय स्थान होता है। अनुमेय सूक्ष्म शरीर अपञ्चीकृक महाभूतों से निर्मित होता है, इसी के माध्यम से जीव सुख-दुख का भोग या अनुभव करता है।

तृतीय स्थूल शरीर आकाशादि सूक्ष्म भूतों के पञ्चीकरण के बाद आकाशादि स्थूल भूतों का निर्माण होता है जिनसे ब्रह्माण्ड की सृष्ति होती है। ब्रह्माण्ड में जरायुज, अण्डज, स्वेदज एवं उद्भिज यें चार प्रकार के प्राणी उत्पन्न होते हैं। इन्हें सांख्य दर्शन में स्थूल शरीर से अभिहित किया है।1,2

सांख्य दर्शन में सूक्ष्म शरीर स्वरुप:-

तेरह करण(पञ्च ज्ञानेन्द्रिय, पञ्च कर्मेन्द्रिय, मन, बुद्धि और अहंकार) तथा पञ्च

तन्मात्रायें, इन अट्ठाहरह तत्वों का यह समूह सूक्ष्म शरीर कहलाता हैं।1 सांख्य दर्शन के अनुसार

मनुष्य जो भी शुभ और अशुभ कार्य करता हैं उसके परिणाम-स्वरूप संस्कार बनते है। इन

संस्कारों को ही भाव कहते हैं।2 ये संख्या आठ में है:- धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य ये सात्विक

भाव तथा इनके विपरीत अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य और अनैश्वर्य ये तामस् भाव हैं। बुद्धि इन्हीं से

संयुक्त होकर सूक्ष्म शरीर की रचना करती हैं।2

1. एतेभ्य:सूक्ष्मशरीराणि स्थूलभूपानि चोत्पद्य्न्ते।वेदान्तसार,60

2. अस्याप्येषा व्यष्टि स्थूलशरीरमन्नविकारत्वादेव हेतोरन्नमयकोशो जाग्रदिति चोच्यते।वेदान्तसार,114

3. पञ्चकर्मेन्द्रियाणि, पञ्चबुध्दीन्द्रियाणि, पञ्चतन्मात्राणि, मनोबुद्धिरहंकार, एवमष्टादश

3.महदादिसूक्ष्मपर्यन्तम्| माठरवृति,40

4. सा च बुध्दिरष्टांडि़का सात्त्विकतामसरुपभेदात्।-गौडपादभाष्य,२३

सूक्ष्म शरीर के तत्वों में से तेरह करणों को लिंग शरीर भी कहते हैं।1 जिसका

लक्षण है-लिंगनाज्ज्ञापनाद् लिंगम्2 अर्थात् जिसके द्वारा पुरूष का ज्ञान होता है, वह लिंग हैं।

इस तरह लिंग अर्थात् तेरह करणों में जब पञ्च तन्मात्राएं जुड़ जाती़ हैं तो वह सूक्ष्म शरीर हो

जाता हैं। यह लिंग शरीर सृष्टि के आरम्भ से उत्पन्न होकर प्रलय पर्यन्त बना रहता है। और

इसमें सर्गादीकाल से ही भोर विद्यमान रहता है।3 इस तरह नियत होने के कारण इसे नित्य

मानते हैं। जब तक यह कैवल्य की प्राप्ति नहीं हो जाती है, तब तक यह बना रहता है।4,5 इस

कारण यह नियत होने के कारण इसे नित्य कहा गया है।6यह अनेक हैं तथा व्यक्ति भे से भी

अनेक हैं।7

सांख्य सिद्धान्त के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में ही प्रति पुरूष एक-एक सूक्ष्म शरीर

को प्रकृति उत्पन्न कर देती है। यह सूक्ष्म शरीर इतना सूक्ष्म होता हैं कि शिलाओं में भी

आसानी से प्रवेश कर सकता हैं। इस संबंध में सांख्यकारिका का चालिसवां श्लोक उद्धृत है-

पूर्वोत्पन्नमसक्तं, नियतं, महदादि सूक्ष्मपर्यन्तम्।

संसरति निरूपभोगं भावैरधिवासितं लिंगम्।।

अर्थात् सृष्टि के आरम्भ में पूर्वोत्पन्न, असक्त, नियत, महत् तत्व से लेकर सूक्ष्म तन्मात्रापर्यन्त,

भोगरहित, धर्म, अधर्म आदि भावों से युक्त लिंग शरीर संसरण या गमनागमन करता रहता है।8अर्थात् मृत्युकाल में सूक्ष्म शरीर बार-बार धारण किये गये पुराने स्थूल शरीर को छोड़कर नये स्थूल शरीर को धारण करता है। 9यह सूक्ष्म शरीर साक्षात् रूप से विषयों का भोग नहीं कर सकता है, वह स्थूल शरीर के द्वारा ही विषयों का भोग करता है।9 चूंकि भोग स्थल शरीर में होता है। यह स्थूल शरीर माता पिता के संयोग से षट्कौशिक शरीर उत्पन्न होता

1. लिंग प्रलयकाले प्रधाने लय गच्छति इति लिंगम्। माठरवृति,40

2. सांख्यतत्वकौमुदी,41

3. पूर्वेत्पत्तेस्तत्कार्यत्वं भोगादिकस्य नेतरस्य।सां.सू.,

4. आविवेकाच्च प्रवर्त्तनमविशेषाणाम्।सां.सू. ४

5. पुरुषार्थं संसृति लिङ्गानां सूपकारवद्राज्ञः।सा.सू.१६

6. नियतं नित्य ज्ञानोत्पत्ते प्रागित्यर्थः।जयमङ्गला

7. व्यक्तिभेदः कर्मविशेषात्।सा.सू.१०

8. सा.का.४१

9. अविशेषाद् विशेषारम्भः।सां.सू.,

10. तस्माच्छरीरस्य।सा.सू.२

है, किन्तु सूक्ष्म शरीर की स्थिति इस तरह की नही होती।1 जब तक वह स्थूल शरीर नहीं प्राप्त करता, इधर-उधर तीनों लोकों में विचरण करता रहता हैं। चूंकि बुद्धि धर्म, अधर्म आदि भावों से युक्त रहती है और सूक्ष्म शरीर बुद्धि से युक्तरहता है। इसलिए बुद्धि से युक्त होने के कारण सूक्ष्म शरीर भी धर्म आदि भावों का उसी प्रकार

से भोग करता है जैसे चम्पक पुष्प के सम्पर्क से वस्त्र सुगन्धित होता है। इस तरह धर्म-अधर्म

आदि से युक्त होने के कारण सूक्ष्म शरीर संचरण करता है।2

जिस प्रकार शीतलता के बिना जल नहीं रहता और जल के बिना शीतलता नहीं रहती, वायु

स्पर्श के बिना नहीं रहता| अग्नि उष्णता के बिना नहीं रहती उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर स्थूल

शरीर के बिना नहीं रहता है।3 जब तक कर्मों का भोग पूर्ण नहीं हो जाता, तब तक सूक्ष्म शरीर

बना रहता है और नाना योनियों में स्थूल शरीर के माध्यम से पुनर्जन्म लेता रहता है।4 स्थूल

शरीर मूर्त्त होता है अतः मूर्त्त शरीर मूर्त्त पदार्थो का उपभोग नही कर सकता। यह सूक्ष्म शरीर के

माध्यम से ही हो सकता हैं।5 यह सूक्ष्म यह शरीर पुरूषार्थ के लिए प्रवृत्त होता है। जिस प्रकार राजा अपने देश में समर्थ होने के कारण जो-जो चाहता है वह कर लेता है उसी प्रकार प्रकृति भी सर्वत्र व्यापक होने के कारण

निमित्त-नैमित्तिक प्रसंग से पृथक-पृथक देह धारण में सूक्ष्म शरीर की व्यवस्था करती हैं। सूक्ष्म

परमाणुओं से तन्मात्राओं से उपचित तेरह करणों वाले सूक्ष्म शरीर की मानुष, दैव तथा तिर्यक

योनियों में व्यवस्था करता हैं अर्थात् सूक्ष्म शरीर भिन्न योनियों में शरीर धारण करता है।

कैसे? नटवत्।6

जैसे नट परदे में वेश बदल कर आता है, कभी देवता बनकर आता है तो पुनः

मनुष्य बनकर आ जाता है फिर विदूषक या अन्य बनकर। इसी प्रकार सूक्ष्म शरीर

निमित्त-नैमित्तिक प्रसंग से अन्दर जाकर हाथी, स्त्री, पुरूष आदि रूपों को धारण करता है। इस

तरह सूक्ष्म शरीर भोगों क उपभोग करने के लिय स्थूल के माध्यम से पुनर्जन्म लेता रहता हैं

जब तक उसमें भोग पूर्ण नही हो जाते।

1. मातापितृजं स्थुलं प्रायशः इतरन्न तथा।सा.सू.७

2. सा.त.कौ.,४०

3. चित्रं यथाश्रयमृते स्थाण्वादिभ्यो विना यथाच्छाया।

4. उपभोगादितरस्य।सा.सू.५

5. मूर्त्तत्वेऽपि न सङ घातयोगात् तरणिवत्।सा.सू.१३

6. पुरुषार्थहेतुकमिदं निमित्त-नैमित्तिकप्रसङ्गेन।

प्रकृतेर्विभुत्वौयोगान्नटवत् व्यवतिष्ठते लिङ्गम्॥सा.का.४२

शैव दर्शन में सूक्ष्म शरीर का स्वरुप--

शैव दर्शन में सूक्ष्म शरीर का मानना है कि कर्मादि से संबद्ध परमेश्वर संसार का कारण है। इसमें पति(ईश्वर), पशु(जीव) तथा पाश(बंधन) ये तीन पदार्थ स्वीकार किए जाते है। पति से आशय शिव से है जो स्वतंत्र एवं चेतन है। पाश संसार है। पशु स्वतंत्र नहीं है। जो अणु नहीं है, क्षेत्रज्ञ आदि पर्यायवाची शब्दों से जिसका बोध हो , ये पशु निरन्तर पाश से ग्रसित है। पाश नाश पर शिवत्व प्राप्त होता है। पाश नाश अनादि मुक्त परमेश्वर की कृपा से होता है। मुक्त परमेश्वर का शरीर पांच मंत्रों का बना होता है।

जीव1 के तीन भेद विज्ञानकाल2, प्रलयकाल3 और सकलकाल4 होते है।

प्रलयकाल जीव-- प्रलय के द्वारा इसमें कलादि ( शरीर के प्रयोजक) का विनाश होता है। इसमें मल के साथ कर्म भी रहता है।

1. पशुस्त्रिविधः-विज्ञानाकल-प्रलयाकल-सकलभेदात्।सर्वदर्शनसंग्रह

2. पशवस्त्रिविधा: प्रोक्ता विज्ञानप्रलयकेवलौ सकलः।

मलयुक्तस्त्रताद्यो मलकर्मयुतो द्वितीय: स्यात्।।-सर्लदर्शनसंग्रह

2 विज्ञानाकलनामैको द्वितीय प्रलयाकल:।

तृतीय: सकल: शास्त्रोउनुग्रहयस्त्रिविधोमत:।।-सर्वदर्शनसंग्रह

2. तत्र प्रथमो विज्ञानयोगसंयासैर्भोगेन वा कर्मक्षये सति कर्मक्षयार्थस्य कलादिभोगबन्धस्य अभावात केवलमलमात्रयुक्तो विज्ञानाकल इति व्यपदिश्यते। -सर्वदर्शनसंग्रह

2. शुद्धबोधात्मकत्वेऽपि येषां नोत्तमकर्तृता। निर्मिता: स्वात्मनो भिन्ना भर्त्राते कर्त्ततात्यात्।।

बोद्धादिलक्षणैक्यऽपि येषामन्योन्यभिन्नता। तथेश्वरेच्छाभेदेन ते च विज्ञानकेवला।। तन्त्रलोक,9,91

2 तत्र विज्ञानकेवलो मलैकयुक्तः इत्यादौ विज्ञानं बोधात्मकं रूपं केवल स्वातन्त्र्य विरहित मेषामिति। -ईश्वरप्रत्यभिज्ञा

3 . प्रलयाकलेषु येषामपक्वमलकर्मणी व्रजन्त्येते।

पुर्यष्टकदेहयुता योनिषु निखिलासु कर्मवशात्।।- सर्वदर्शनसंग्रह

3. द्वितीयस्तु प्रलयेन कलादेरूपसंहारान्मलकर्मयुक्तः प्रलयाकल इति व्यवह्रियते।सर्वदर्शनसंग्रह

पुर्यष्टक नाम प्रतिपुरूष नियत:, सर्गादारम्भ कलान्तं मोक्षान्तं वा स्थित:, पृथिव्यादिकलापर्यन्तस्त्रिशत्तत्वातमक:,सूक्ष्म देह:।-सर्वदर्शनसंग्रह

3. तथापि कथमस्य पुर्यष्टकत्वम् ? भूततन्मात्रबुद्ग्दीन्द्रियान्तःकरनसंज्ञैःपन्च्अकात्मना वर्गेण चारब्धत्वादित्यविरोधः।तत्र पुर्ष्टकयुतान्विशिष्टपुण्यसम्पन्नान काश्चिदनुगृह्यभुवनपतित्वमत्र महेश्वरोऽनन्तः प्रच्छति। सर्लदर्शनसंग्रह

4 . तृतीयस्तु मलमायाकर्मात्मकबंधत्रयसहितः सकलइति संलिप्यते। सर्लदर्शनसंग्रह

यह दो प्रकार का है-

1. पक्वपाशद्वय :- जिसके दो पाश परिपक्व हो गए हों। जब पाश परिपक्व हो जाते हैं तो भोग की हानि होती है तथा जीव मुक्त हो जाते हैं। अत: ये मोक्ष प्राप्त करते हैं।

2. तद्विलक्षण:- जिसेक पाश परिपक्व न हुए हों। यह शरीर प्राप्त करके कर्म के वश में होकर नाना प्रकार के जन्म प्राप्त करता है। इस शरीर को पुर्यष्टक कहा गया है। तत्वप्रकाशकार भोजराज ने पुर्यष्टक का लक्षण दिया है-- स्यात्पुर्यष्टकमन्तःकरणं धीकर्मकरणानि।

अर्थात् अन्त:करण( मन, बुद्धि, अहंकार तथा सात कलादि) धी अर्थात् बुद्धि के कर्म( पांच भूत,+ पांच तन्मात्र) और करण अर्थात् साधन( 10 इन्द्रियां, क्योंकि यह ज्ञान व कर्म के साधन हैं)- इसे पुर्यष्टक कहते हैं। कलादि से तात्पर्य पुरूष की भोग क्रिया में अनिवार्य रूप से विद्यमान कला, काल , नियति, विद्या, राग, प्रकृति और गुण इन सात को उसी से उपलक्षित किया जाता है।

अघोरशिवाचार्य के अनुसार पुर्यष्टक शरीर का लक्षणपुर्यष्टकं नाम प्रतिपुरूषं नियतः, सर्गादारभ्य कल्पान्तं मोक्षान्तं वा स्थितः पृथिव्यादिकलापर्यन्तास्त्रिशत्त्वात्मक सूक्ष्मो देहः।

अर्थात् पुर्यष्टक उस सूक्ष्म देह को कहते है जो प्रत्येक पुरूष के लिए नियत रहती हैं, सृष्टि के आरम्भ से लेकर कल्प के अंत तक या मोक्ष के अंत तक स्थिर रहती है और पृथ्वी आदि कलापर्यन्त तीस तत्त्वों से निर्मित होती है। श्रीमत कालोन्तर आगम में पुर्यष्टक का लक्षण इनसे भिन्न दिया गया है-

शब्द: स्पर्शस्तथा रूपं रसो गंधश्च पञ्चकम्।

बुद्धिर्मनस्त्वहंकार: पुर्यष्टकमुदाह्तम्।।

अर्थात् शब्द, स्पर्श,रूप, रस और गंध इन पांच समूहों तथा बुद्धि, मन एवं अहंकार-ये मिलकर पुर्यष्टक है। पुर्यष्टक में पुरि= शरीरे, अष्टकम् ये दो शब्द हैं। इसका आशय है कि शरीर में आठ का ही अस्तित्व। किन्तु तीस तत्त्व भी पुर्यष्टक से अभिहित हैं। पञ्च महाभूत, पञ्च तन्मात्रा, पञ्च ज्ञानेन्द्रियां, पञ्च कर्मेन्द्रियां तथा तीन अन्तःकरण- ये पाँच वर्ग और इनके कारणस्वरूप तीन गुण (1-प्रधान-समस्त जगत का मूल कारण, 2-प्रकृति, 3 - कलादि,पांच का वर्ग) मिलाकर आठ वर्ग हो जाते हैं। इन्हें ही पौर्यष्टक कहा जाता हैं।3 पुर्यष्टक से युक्त तथा विशेष पुण्य करनेवाले कुछ लोगों पर दया करके महेश्वर अनन्त उन्हें इसी संसार से भुवनपति का पद देते हैं।1

1 . तथापि कथमस्य पुर्यष्टकत्वम् ? भूततन्मात्रबुद्ग्दीन्द्रियान्तःकरनसंज्ञैःपन्च्अकात्मना वर्गेण चारब्धत्वादित्यविरोधः।तत्र पुर्ष्टकयुतान्विशिष्टपुण्यसम्पन्नान काश्चिदनुगृह्यभुवनपतित्वमत्र महेश्वरोऽनन्तः प्रच्छति। सर्लदर्शनसंग्रह

सांख्य दर्शन में सूक्ष्म शरीर

- मूलप्रकृतिविकृतिःइति। प्रकरोति इति प्रकृति प्रधानम्

- सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था, सा अविकृति, प्रकृतिरेवेत्यर्थः। पृ. सं- २८

1. अध्यवसायो बुद्धिः। सांख्यकारिका, 2-अभिमानोह्ग्कारः। सांख्यकारिका24

2. अभिमानोह्ग्कारः। सांख्यकारिका,24

- अंतोऽहमस्मि इति योभिमानः सोऽसाधारणव्यापारत्वाद् अंहकारः। सांख्यतत्त्वकौमुदी,24

3. सात्त्विकांहकारोपादानकत्वम् इन्द्रियत्वम्।सांख्यतत्त्वकौमुदी,25

4. बुद्धिन्द्रियाणि चक्षुः श्रोत्रघ्राणरसनत्वगारख्यानि। सांख्यकारिका26

5. तत्र रूपग्रहणलिग्डं चक्षु, शब्दग्रहणलिंग श्रोत्रं, गन्धग्रहणलिंगं घ्राणं, रसनग्रहणलिंगं रसनं,

5. स्पर्शग्रहणलिंगं त्वक् इति ज्ञानेन्द्रियाणां संज्ञा। सांख्यतत्त्वकौमुदी,26

6. वाक्पाणिपादपायुपस्थानि कमेन्द्रियाण्याहुः।

- कर्म कुर्वन्तीति कर्मेन्द्रियाण। गौड़पाद भाष्य26

7. तत्र वाग् वदति, हस्तौ नाना व्यापारं कुरुतः। गौड़पाद भाष्य26

- पादौ विषमसमनिम्नोन्नतभूतप्रदेषु क्रामतः, पायुः यथाभुक्तात्रोदकमलमुत्सृजति। उपस्थ

आनन्दं करोति पुत्रमुत्पादयतीत्यर्थः।

8. उभयात्मकत्रमनः संकल्पकमिनिद्रियं च साधर्म्यात्। गुणपरिणामविशेषान्नात्रानात्वं बाह्यभेदाश्च।

8. सांख्यकारिका,27

9. -(अन्तःकरणः लिंग शरीर) अन्तःकरणं त्रिविधम् बुद्धिरहकारो मनं इति

9. शरीराभ्यन्तरवर्तित्वादन्तः करणम्। दशदा बाहयं करणम्। सांख्यतत्त्वकौमुदी,33

- लिग्डं त्रयोदशकरणसमुदायः। किरणावली,41

- लिंग प्रलयकाले प्रधाने लय गच्छति इति लिंगम्। माठरवृति,40

- लिंगनाज्ज्ञापनाद् बुद्धयादयो लिंगम्। सांख्यतत्वकौमुदी,41

- पूर्वोत्पन्नमसक्तं नियतं महदादिसूक्ष्मपर्यन्तम्।

संसरति निरूपभोगं भावैरधिवासितं लिंगम्॥ सांख्यतत्वकौमुदी,41

10. तामसादहंकारादुत्पन्नानि पञ्चतन्मात्राणि शब्दादीनि तान्यविशेषा इत्युच्यन्ते । माठरवृति,38

11. शब्दादिभ्य पञ्चभ्य आकाशादीनि पञ्चमहाभूतानि

11. पूर्वपूर्वानुप्रदेशादेकद्वित्रिचतुष्पञ्चगुणान्युत्पद्यन्ते। माठरवृति,38

12. पञ्चकर्मेन्द्रियाणि, पञ्चबुध्दीन्द्रियाणि, पञ्चतन्मात्राणि, मनोबुद्धिरहंकार, एवमष्टादश महदादिसूक्ष्मपर्यन्तम्| माठरवृति,40

- एषां समुदायः सूक्ष्मं शरीरम् । शान्तघोरमूढैरिन्द्रियैरन्वितत्वाद्विशेष। सांख्यतत्त्वकौमुदी, 40

13. सूक्ष्मा सूक्ष्मदेहाः परिकल्पिताः मातापितृजाः षाटकौशिकाः। तत्र मातृतो लोमलोहितमांसानि,

13. पितृतस्तु स्नाय्वस्थिमज्जान इति षट्कोशाः। सांख्यतत्त्वकौमुदी,39

- पञ्चभौतिको देहः। सांख्यसूत्र, १७

अद्वेतवेदान्त दर्शन में सूक्ष्म शरीर

1. अस्यापीयमहङ्कारादिकारणत्वात् कारणशरीरमानन्दप्रचुरत्वात्कोशवदाच्छदकत्वाच्चानन्दमयकोषः सर्वोपरमत्वात्सुषुप्तिरत एव स्थुलसुक्ष्मशरीर प्रपञ्चलयस्थानमिति चोच्यते॥ वेदान्तसार,४५

2. अयं कर्तृत्वभोक्तृत्वसुखित्वदुःखित्वाद्यभिमानित्वेनेहलोकपरलोकगामि व्यावहारिको जीव इत्युच्यते ॥ वेदान्तसार ७३

.-"पञ्चप्राणमनो बुद्धिदशेन्द्रियसमन्वितम्।

अपपञ्चीकृत भूतोत्थं सूक्ष्माक्डं भोगसाधनम॥" शांकर भाष्य

3. सूक्ष्मशरीराणि सप्तदशावयवानि लिंगशरीराणि। वेदान्तसार,61 तदानीमाकाशे शब्दोऽभिव्यञ्जते वायौ शब्दस्पर्शावग्नौ शब्दस्पर्शरूपाण्य प्सु शब्दस्पर्शरूपरसः पृथिव्यां शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाश्च। वेदान्तसार,103

-स्थूलभूतानि तु पञ्चीकृतानि। वेदान्तसार,98

4. बुध्दिनाम निश्चयात्मिकान्तः करणवृतिः। वेदान्तसार,65

5. ज्ञानेन्द्रियाणि श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वाघ्राणाख्यानि। वेदान्तसार,63

6. मनोनाम सक्ल्पविकल्पाति कान्तः करणवृत्ति। वेदान्तसार,66

7. ज्ञानेन्द्रियाणि श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वाघ्राणाख्यानि। वेदान्तसार,63

8. कर्मेन्द्रियाणि वाक्पाणिपादपायूपस्थाख्याणि। वेदान्तसार,75

9. वायवः प्राणापानव्यानोदानसमानाः। वेदान्तसार,77

10. इयं बुध्दिर्ज्ञानेन्द्रियैः सहिता विज्ञानमयकोशो भवती। वेदान्तसार, 72

- एतेषु कोशेषु मध्ये विज्ञानमयो ज्ञानशक्तिमान कृतिरूपः। वेदान्तसार,89

11. मनस्तु ज्ञानेन्द्रियै सहितं सन्मनोमयकोशोभवति। वेदान्तसार,74

- मनोमय इच्छाशक्तिमान् करणरूपः। वेदान्तसार,89

12. इदं प्राणादिपञ्चकं कमेन्द्रियैः सहितं सत्प्राणमयकोशो भवति। अस्य क्रियात्मत्वेन

12.रजोंऽशकार्यत्वम्। वेदान्तसार,88

एतत्कोशत्रयं (विज्ञानमय, मनोमय तथा प्राणमय) मिलितं।सत्सूक्ष्मशरीरमित्युच्यते। वेदान्तसार,89

शैव दर्शन में सूक्ष्म शरीर का स्वरुप--

1. शिवशक्ति सदेशानविद्याख्यं तत्त्वपञ्चकम्

एकैकत्रापि तत्त्वेस्मिन् सर्वशक्तिसुनिर्भरे ॥तंत्रालोक,५१

2. तदेवं पञ्चकमिदं शुध्दोऽध्वा परिभाष्यते।

तत्र् साक्षाच्छिवेच्छैव कर्त्र्याभासितभेदिका॥ तंत्रालोक,६०

-“शिवः स्वतन्त्रदृग्रुपःपञ्चशक्तिसुनिर्भरः ॥तंत्रालोक४९

- “स्वातन्त्त्र्यभासितभिदा पञ्चधा प्रविभज्यते ।

चिदानन्देषणाज्ञानक्रियाणां सुस्फुटत्वतः॥तंत्रालोक, ५०

3. मायाशक्तैव तत्त्रयम्। ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका३.२.१५

4. मायां विक्षोभ्यं संसारं निर्मितीते विचित्रकम्।

माया च नाम देवस्य शक्तिव्यतिरेकिणी।।तंत्रोलोक 9.149

- माया कला रागविद्ये कालो नियतिरेव च।

कञ्चुकानि षडुक्तानि संविदस्तत्स्थितौ पशुः।।तंत्रालोक3.204

5. त्रिगुणा चैतन्यात्मनि सर्वगतेऽवस्थितेऽखिलाधारे।

कुरूते सृष्टिमविद्या सर्वत्र स्पृश्यते तथा नत्मा।। परमार्थसार, 49 कारिका

6. बुद्धिरध्यवसायसामान्यमात्ररूपा। ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी।3.111

7. ग्राह्यग्राहकाभिमानरूपोऽहंकार:। ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी3.1।। 278

- इत्ययं करणस्कन्धोऽहंकारस्य निरूपितः।

त्रिधारस्य प्रकृतिस्कन्ध:सात्त्वराजसतामसः।।तंत्रालोक9.223

- इत्ययं करणस्कन्धोऽहंकारस्य निरूपितः।

त्रिधारस्य प्रकृतिस्कन्ध:सात्त्वराजसतामसः।।तंत्रालोक9.223

8. सकंलपादिकारणं मन:। ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी 3.2.11

9. -श्रोत्रं त्वगक्षि रसना घ्राणं बुद्धिन्द्रियाणि। परमार्थसार, 20 कारिका

10. वाक्पाणि-पाद-पायूपस्थं कर्मेन्द्रियाणि पुन:।।परमार्थसार,20 कारिका

- तत एव त्वहंकारात् तन्मात्रस्पर्शिनोऽधिकम्।

कर्मेन्द्रियाणि वाक्पाणिपायूपस्थाड़घ्रि जज्ञिरे। तंत्रालोक9.53

11. एषां ग्राह्यो विषय: सूक्ष्म: प्रविभाग वर्जितो य:स्यात्।

तन्मात्रपञ्चकं तत् शब्द:स्पर्शो महो रस गंध:।। परमार्थसार,21 कारिका

- भूतादिनाम्नस्तन्मात्रपञ्कं भूतकारणम्।

मनेबुद्ध्यक्षकर्माक्षवर्गस्तन्मात्रवर्गक:।।तंत्रालोक,9.272-

12. एतत्संसर्गवशात् स्थूलो विषयस्तु भूतपञ्चकताम्।

अभ्येति नम: पवनस्तेज: सलिलं च पृथ्वी च।।परमार्थसार, 22 कारिका

उद्देशय-

1. वेदान्त, सांख्य तथा शैव दर्शनों में की पद्धतियों में सूक्ष्म शरीर का सांगोपांग

1. अध्ययन करना।

2. सूक्ष्म शरीर के तत्त्वों की समानताओं में तथा स्वरूप में विभेद के कारणों का पता

2. लगाने में ।

3. वेदान्त, सांख्य तथा शैव दर्शनों की सैद्धान्तिक पद्धतियों अनुरुप सूक्ष्म शरीर का प्रस्तुतीकरण - करना

4. पुनर्जन्म की जटिल गुत्थियों को समझने के लिए सूक्ष्म शरीर को समझना।

5- सूक्ष्म शरीर को वैज्ञानिक पद्धति से प्रस्तुत करते हुए ह्रदयगंम करना।

6- सूक्ष्म शरीर की अवधारणा को व्यवस्थित रूप देकर नास्तिक जनमानस को

आस्तिक आशावादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करना।

7- मेरे लिए यह विषय रूचिपूर्ण है , क्योंकि इसको समझकर में अपने जीवन की

गूढ़ समस्याओं को सुलझा पाउगां

विषयगत उपलब्ध शोध कार्य-

1. Katyanidas bhattacharya, “The concet of subtle body in subtal

1.body in samkhaya philosophy” proceedings of the all india

1.conference.Listed by volume and year.1-36(1986-87)

2. Katayani bhattacharya,”The concept of sublte body in the

2.samkhya philosophy” Journal of philosophical association(Nagpur)

3. Y.K. Wadwani “subtle bodies postulated in the classical

3.samkhaya system”, Sambodhi s.l.,1976-77

4. A.C.Das, Advaita vedanta liberation in bodily existence “

4.philosophy east and west (Honolulu)1954

5. Gavin d.flood “Techniques of body and desire in Kashmir

5.sakism” Religion 22,1992.

प्रस्तावित शोध कार्य का वैशिष्ट्य -

उपर्युक्त आवश्यकता एवं उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत शोध विषय का चयन किया गया है । यह शोध कार्य उपर्युक्त सभी शोध कार्यों से पृथक् एवं वैषिश्ट इसलिये है कि इसका मुख्य लक्ष्य वेदान्त, शैव तथा सांख्य दर्शनों में सूक्ष्म शरीर के तत्त्वों के स्वरूपों का एवं भिन्नता के आधारों का तुलनात्मक एक ही स्थल पर समग्रतया विवेचन करते हुए इनकी तुलनात्मक समीक्षा का सुस्पष्ट, सरल एवं सुसम्बद्ध प्रस्तुतिकरण करना है ।

प्रस्तावित अध्याय योजना-

यद्यपि शोधकार्य के प्रारम्भिक स्थर पर शोधकार्य प्रबन्ध का यथावत अध्याय विभाजन सम्भव नही, तथापि इस शोध विषय से सम्बन्धित कुछ निम्नलिखितअध्यायों में वर्गीकृत करने की अभिकल्पना की गई है—

· विषय प्रवेश

· वेदन्त दर्शन में सूक्ष्म शरीर का स्वरूप

· सांख्य सांख्य दर्शन में सूक्ष्म शरीर का स्वरुप

· शैव दर्शन में सूक्ष्म शरीर का स्वरुप

· वेदान्त,सांख्य तथा शैव दर्शनों में सूक्ष्म शरीर के तत्त्वों की संख्या एवं स्वरूप में समानता एवं विषमता के आधारभूत कारणों का प्रस्तुतिकरण

· उपसंहार

सन्दर्भ ग्रन्थ सूचि-

मूल स्त्रोत-

1. वेदान्तसार (विवृति सहित) सदानन्दयोगीकृत, डॉ. कृष्णकान्त त्रिपाठी

साहित्य भण्डार, सुभाष बाजार, मेरठ-250002

2. सुबोधिनी संस्कृतटीका सहितः वेदान्तसार सदानन्दप्रणीत , डॉ. आद्याप्रसाद मिश्र

अक्षयवट प्रकाशन, इलाहाबाद।

3. प्रत्यभिज्ञाह्रदयम्, क्षेमराज

4. श्रीतन्त्रालोकः, महामाहेश्वर श्रीमदभिनव गुप्तपादाचार्या विरचित, चतुर्थभाग, डॉ.

4.परमहंसमिश्र हंस, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी

5. सर्वदर्शनसंग्रह, माध्वाचार्य, प्रो. उमाशंकर शर्मा ऋषि, चौखम्बा प्रकाशन, वाराणसी

6. सांख्यकारिका, ईश्वरकृष्ण, डॉ.रामकृष्ण आचार्य, साहित्य भण्डार, मेरठ

7. सांख्यदर्शन, विदोदयभाष्य, उदयवीर शास्त्री, विजयकुमार गोविन्दराम, हंसानन्द

8. सांख्यतत्त्वकौमुदी, वाचस्पतिमिश्र, चौखम्भा प्रकाशन, वाराणसी

गौण स्त्रोत-

1. योगीकथामृत,परमहंस योगानन्द, योगा सत्संग सोसायटी ऑफ इंडिया

2. शिवमुनि ग्रंथावली, आदि मुनीश्वीर योगेश्वर शिव मुनि महाराज, मुनीश्वर मठ

2. आदिमुनीश्वराश्रम,24/1, अलहदादपुर, गोरखपुर-273001

3. भारतीय दर्शन की रूपरेखा, आचार्य बलदेव उपाध्याय, चौखम्बा प्रकाशन, वाराणसी

4. दर्शन दिग्दर्शन, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल

5. भारतीय दर्शन, डी. आर. जाटव, नेशनल प्रकाशन हाउस, नई दिल्ली

6. भारतीय दर्शन (आलोचन और अनुशीलन), चन्द्रधर शर्मा, मोतालाल

6. बनारसीदास, नई दिल्ली।

7. षड्दर्शन रहस्य, पंडित रंगनाथ पाठक, बिहार राष्ट्रभाषा, पटना

8. भारतीय दर्शन की समीक्षात्मक रूपरेखा, राममूर्ति पाठक, अभिमन्यु प्रकाशन,

8. इलाहाबाद।

9. भारतीय दर्शन का विवेचनात्मक इतिहास, राममूर्ति शर्मा, राष्ट्रीय संस्कृत -

9. संस्थानम्

10. भारतीय दर्शन, डॉ. राधाकृष्ण, राजपाल एण्ड संस, दिल्ली

कोश ग्रंथ-

1. ENCYCLOPEDIA OF INDIAN PHILOSOPHIES,

1. VOL; 1;, KARL H. POTTER, MOTILAL BANARASIDAS, VARANSI,1995

2. संस्कृत हिन्दी कोश, वामन शिवराम आम्टे, नाग प्रकाशन, दिल्ली

3. अमरकोश, शक्तिधरशास्त्रीकृत हिन्दी टीका सहित, नवल किशोर प्रेस,

3. लखनऊ,1919

4. भारतीय दर्शन वृहतकोश (4 खण्ड), बच्चूलाल अवस्थी, शारदा प्रकाशन,

4. दिल्ली,2005

साक्षात्कार

1. संत गुरनीत राम रहीम सिंह जी, डेरा सच्चा सौदा, सिरसा, हरियाणा।

2. बाबा रामदेव. पतंजली क्लीनिक, मुनीरका, नई दिल्ली

3. आचार्य बलदेव, आर्य समाज, मधुबन चौक, नई दिल्ली

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